जिले के समदड़ी कस्बे में दो पहाड़ों के बीच बना ललेची माता का मंदिर विख्यात है। सदियों पुराने इस मंदिर को लेकर पुजारी मोहन सिंह राजपुरोहित बताते हैं कि 800 साल पहले धूमड़ा से नौ देवियों में हुए विवाद के कारण वहां से किसी कारण से माता रवाना हुई जो धूमड़ा से होते हुए गुफा के अंदर से समदड़ी में प्रकट हुई। माता के प्रकट होने से एक पहाड़ दो हिस्सों में बंट गया। जब माताजी प्रकट हुई तब क्षेत्र व आसपास जबरदस्त गर्जना हुई, उस गर्जना की ललकार के कारण माता का नाम ललेची माता पड़ा।
आज भी वह सुरंग ललेची माताजी की प्रतिमा के पास से गुजरती हुई जालोर जिले के भाद्राजून के पास स्थित धूमड़ा माता मंदिर तक पहुंचती है। पुजारी बताते हैं कि तीन प्रतिमाएं माताजी की यहां कुदरती प्रगट हुई, जिसके बाद तीन रूपों में पूजा की जाती है। तीनों ही प्रकृतिक प्रतिमाओं के अलग-अलग रूप है, बाल अवस्था, यौवन अवस्था व बुजुर्ग अवस्था। हर जाति वर्ग की आस्था मंदिर से जुड़ी है। गहर पूर्णिमा को समदड़ी बाजार बंद रहता है और लोग माताजी के मंदिर पहुंचकर धोक लगाते हैं।
गोवंश के लिए ओरण व गौशाला
ललेची माताजी के प्रकट होने के समय गौ वंश डरकर जहां तक भागा था, वहां तक माताजी की ओरण भूमि है। जहां से सूखी लकड़ी तक गांव का कोई सदस्य नहीं ले जाता। पशुओं के विचरण के लिए वह जगह छोड़ रखी है। वहीं यहां श्री ललेची माता गौ सेवा समिति नाम से गौशाला का भी संचलन किया जाता है।
ललिता पंचमी का विशेष महत्व
माना जाता है कि गरबों में मां के नौ रूप नृत्य करने पंडाल में आते हैं। कलाकारों द्वारा माता के नौ रूपों की वेशभूषा के साथ पंडाल में नृत्य किया जाता है। हवन अष्टमी के दिन गरबा में काली माता के प्रवेश का विशेष आकर्षण रहता है। इसको देखने क्षेत्र सहित अन्य जिलों से सैकड़ों श्रद्धालु पहुंचते हैं। ऐसा माना जाता है कि मां काली के प्रवेश के दिन पहाड़ से एक ज्योति निकलती है, जिनके खप्पर के अंदर स्वयं अग्नि प्रज्जवलित होती है। मां काली के प्रवेश से पूर्व चारों तरफ अंधकार छा जाता है।